चुनाव से पहले गहलोत के बयान से एक और बड़ी हलचल, पायलट के लिए बढ़ी मुश्किलें

राजनीती की राह वैसे ही बहुत मुश्किलों वाली होती है, पर ये मुश्किलें और बढ़ जाती हैं जब चुनावी जंग में विरोध या मुकाबला खुद ही के पार्टी के नेताओं से हो| तब ये जानना मुश्किल हो जाता है की साथ पार्टी के लिए रहा जाए या पद के लिए विरोध में|

राजस्थान में चुनावी जंग ज़ोरों पर है और उतनी ही ज़ोरों पर है आपसी मुकाबला मुख्यमंत्री पद के लिए| अभी तक राजस्थान CM पद की दावेदारी में दो ही नामों पर कयास लगाये जा रहे थे| जिसमें पहला नाम पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का था और दूसरा इस स्तर पर पहली बार चुनाव लड़ रहे, पर पक्की दावेदारी वाले सचिन पायलट| ये तो तय था कि दोनों के लिए ये आसान तो नहीं होगा, पर गहलोत के बयान ने इसी खेमे में समस्याएँ और बढ़ा दी है|

गहलोत ने एक प्रेस मुलाकात में चर्चा के लिए फिर एक नया मुद्दा खोल दिया है, जिसका असर राजनैतिक मोहौल में कहीं अच्छा दिखाई दे रहा है तो कहीं परेशानी वाला| गहलोत ने मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल कुछ नाम सामने रखे, जिसमें रामेश्वर डूडी, सचिन पायलट, लालचंद कटारिया, सीपी जोशी और गिरिजा व्यास के साथ साथ रघु शर्मा का नाम भी लिया| इस बयान के बाद कहीं आशाएं बढती नज़र आई है तो कही सकारात्मकता वाली आशाओं पर मुख्यमंत्री न बन पाने वाले काले बादल मंडराने लगे हैं|

जब टिकेट वितरण के नाम सामने आये थे तब से ही पार्टी की मुसीबतें बढ़ ही रही हैं, किसी ने पार्टी से बगावती स्वर खोल दिए हैं तो किसी ने पार्टी से इस्तीफा दे कर स्वतंत्र चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है और उस सब पर ये बयान! ये तो तय था कि चुनावी जंग में बहुत सा बदलाव आएगा पर बदलाव की इस आंधी में अभी कोई राहत मिलती नहीं दिख रही है|

इस बयान का सीधा असर अभी जिस पर पड़ता दिख रहा है वो है सचिन पायलट| उनकी मुसीबत में पहला नाम तो युनुस खान का था, जो उन्हीं के सामने टोंक से चुनावी पर्चा भर चूके हैं| फिर भी उनके कार्यकर्ता और उनकी आशाएं जीत की ही सांकेतिक भाषा बोल रहीं थीं और आशाओं में शामिल था मुख्यमंत्री पद| पर सब इस पद की दावेदारी जैसे ही बढ़ी है वैसे ही पायलट के लिए अब चुनाव जीतना ही नहीं, चुनावी जीत के बाद भी पद मिलने तक जंग ज़ारी रहेगी|

वैसे तो गहलोत ने ये बात भी साफ़ कर दी है कि तो पार्टी के पदाधिकारी का फैसला होगा वही सर्वमान्य होगा, पर इस बात पर विशवास ऐसे भी नहीं किया जा सकता क्योंकि टिकेट का फैसला भी पार्टी के पदाधिकारियों ने ही लिया था, तब सर्वमान्यता कहाँ चली गयी थी| टिकेट का फैसला आते ही बात इतनी बिगड़ गयी थी की पार्टी के ही नेताओं ने पैसे ले कर टिकेट देने तक के आरोप आलाकमान पर लगा दिया था|

चुनाव अपने रंग में हैं, अभी बहुत कुछ देखना और सुनना बाकि है, बस इंतज़ार कीजिए चुनावी जंग में जीत किसकी होगी| आधार ये रहे की हारे कोई भी, जीते कोई भी, असल जीत लोकतंत्र की ही हो, और किसी भी पार्टी की जीत में भला जनता का हो, कार्यबद्धता हो, वादे पुरे किए जाएं और जिस सुधार की गुंजाइश पर वोट दिए जाएं वो सुधार सामान्य जीवन में लाये जा सके|

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